श्यामले - प्र के अत्रे

तू छोकरी, नहि सुन्दरी।
मिष्कील बाल चिचुन्दरी।
काळा कडा मी फत्तरी।
तू काश्मिरांतिल गुल्‌-दरी!

पाताळिचा सैतान मी।
अल्लाघरीची तू परी।
तू मद्रदेशिय श्यामला।
मी तो फकीर कलन्दरी!

मैदान मी थरर्पाकरी।
तू भुमि पिकाळ गुर्जरी।
अरबी समुद्रहि मी जरी।
तू कुद्रती रसनिर्झरी!

आषाढिचा अन्धार मी।
तू फाल्गुनी मधुशर्वरी!
खग्रास चंद्र मलिन मी।
तू कोर ताशोव सिल्व्हरी!

बेसूर राठ '’सुनीत’' मी।
कविता चतुर्दश तू खरी।
”हैदोस’’ कर्कश मी जरी।
'’अल्लाहु अक्बर’' तू तरी!

माजूम मी, तू याकुती।
मी हिंग काबुलि, तू मिरी।
अन् भांग तू चण्डोल मी।
गोडेल मी, तू मोहरी!

मी तो पिठ्यातील बेवडा।
व्हिस्कीतली तू माधुरी।
काडेचिराइत मी कडू।
तू बालिका खडिसाखरी।

पँटीस तू, कटलेट मी।
ऑम्लेट मी, तू सागुती।
कांदे-बटाटे-भात मी।
मुर्गी बिर्यानी तू परी!

अक्रोड मी कंदाहरी।
तू साहर्‍यातील खर्जुरी।
इस्तंबुलीय अबीर मी।
नेपाळची तू कस्तुरी!

मी घोंगडे अन् लक्तरी।
मख्मूल तू मउ भर्जरी।
बेडौल वक्र त्रिकोण मी।
तू लम्बवर्तुळ गे परी।

तू वाढली कितीही जरी।
मज वाटसी पण छोकरी।
जरी मूल हे कमरेवरी।
तरी तू मला छकुल्यापरी!

गांभीर्य आणि वयस्कता।
जरीही तुझ्या मुखड्यावरी।
स्मरते मला तव सानुली।
मूर्ती मनोहर पर्करी!

लव हासरी, लव लाजरी।
लव कावरी, लव बावरी।
चिनिमातिची जणु बाहुली।
मउ शुभ्र, सफेत नि पांढरी!

चल सोनुले, छकुले, घरी।
वात्सल्य गे दाटे उरी।
निर्दोष तो देशील का।
पापा छुपा फिरुनी तरी?

तू दोन इंच जरी दुरी।
फर्लांग भाससि गे परी।
चल श्यामले, म्हणूनी घरी!
बसु खेटुनी जवळी तरी!

घे माडगे, घे गाडगे।
घे गुलचमन्, घे वाडगे।
ताम्बूल घे, आम्बील घे।
घे भाकरी, घे खापरी!

किति थांबू मी? म्हण '’होय'’ ना।
खचली उमेद बरी उरी।
झिडकारुनी मजला परी।
मत्प्रीतिचा न "खिमा" करी!

कवी : प्र. के. अत्रे